सामग्री पर जाएँ

काछी

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

काछी , कच्छवाहा सूर्यवंशी क्षत्रिय है जो कि समन्वित उद्भव का दावा करते हैं। यह समुदाय कुशवाह नाम से जाना जाता है। यह समुदाय स्वयं को विष्णु के अवतार भगवान राम के पुत्र कुश के वंशज तथा सूर्यवंश से अवतरित हैं, कुशवाह समुदाय कि जातियाँ- कछवाहा, मुराव, काछी व कोइरी स्वयं को शिव व शाक्त सम्प्रदाय से जुड़ा हुआ हैं। वर्ष 1920 मे, गंगा प्रसाद गुप्ता ने दावे के साथ अपना मत व्यक्त किया कि कुशवाह समुदाय हिन्दू कलेंडर के कार्तिक माह में हनुमान की उपासना करता है, हनुमान को पिंच ने राम व सीता का सच्चा भक्त बताया है।ै।

उत्पत्ति की कथा

काछी , कच्छवाहा सूर्यवंशी क्षत्रिय है जो कि समन्वित उद्भव का दावा करते हैं। यह समुदाय कुशवाह नाम से जाना जाता है। यह समुदाय स्वयं को विष्णु के अवतार भगवान राम के पुत्र कुश के वंशज तथा सूर्यवंश से अवतरित हैं, कुशवाह समुदाय कि जातियाँ- कछवाहा, मुराव, काछी व कोइरी स्वयं को शिव व शाक्त सम्प्रदाय से जुड़ा हुआ हैं।[1] वर्ष 1920 मे, गंगा प्रसाद गुप्ता ने दावे के साथ अपना मत व्यक्त किया कि कुशवाह समुदाय हिन्दू कलेंडर के कार्तिक माह में हनुमान की उपासना करता है, हनुमान को पिंच ने राम व सीता का सच्चा भक्त बताया है।[2]

जनसांख्यिकी

विलियम पिंच के अनुसार यह लोग उत्तर प्रदेश मध्यप्रदेश व बिहार झारखंड राजस्थान मध्यप्रदेश में पाये जाते हैं।[2]

वर्तमान परिस्थितियाँ

भारत की सनातन संस्कृति में शास्त्र सम्मत पूर्व जन्म कर्म आधारित संचित गुणों के व्यवहारिक अनुपालन अनुसार आजीविका आरक्षित करने की वर्ण व्यवस्था के तहत कुशवाहा नगद उत्पाद के कृषक समाज से आते थे। वर्तमान संविधान व्यवस्था में इस काछी (कुशवाह) जाति को 1991 में "अन्य पिछड़ा वर्ग" के रूप में वर्गीकृत किया गया है।[3] भारत के कुछ राज्यों में कुशवाह "पिछड़ी जाति" के रूप में वर्गीकृत किए गए हैं।[4] वर्ष 2013 में हरियाणा सरकार ने कुशवाह, कोइरी को "पिछड़ी जतियों" में सम्मिलित किया है।[5]

वर्गीकरण

कुशवाह पारंपरिक रूप से किसान थे [6] पिंच ने इन्हे कुशल कृषक बताया है।[7] ब्रिटिश शासन के उत्तर दशको में कुशवाह समुदाय व अन्य जतियों ने ब्रिटिश प्रशासको के समक्ष अपने शूद्र स्तर के विरुद्ध चुनौती प्रस्तुत की व उच्च स्तर की मांग की।[8][9]

काछी व कोइरी दोनों जातियाँ अफीम की खेती में अपने योगदान के कारण काफी समय से ब्रिटिश शासन के करीब रही थी। करीब 1910 से,इन दोनों ही समूहो ने एक संगठन बनाया और स्वयं को को कुशवाह क्षत्रिय बताने लगे।[10] व मुराव जाति ने 1928 में क्षत्रिय वर्ण में पहचान हेतु लिखित याचिका दायर की।[11]

अखिल भारतीय कुशवाह क्षत्रिय महासभा का यह कदम पारंपरिक रूप से शूद्र मानी जाने वाली जातियों द्वारा सामाजिक उत्थान की प्रवृत्ति को दर्शाता है, जिसे एम॰एन॰ श्रीवास ने "संस्कृतिकरण" के रूप में परिभाषित किया है,[12] जो कि उन्नीसवी सदी के उत्तर व बीसवी सदी के पूर्व में जातिगत राजनीति का एक लक्षण था।[11][13]

अखिल भारतीय कुशवाह क्षत्रिय महासभा का यह अतिस्ठान उस वैष्णव विचारधारा पर आधारित था, जिसके अनुसार वह अपने अनुवांशिक शूद्र सदृश मजदूरी के पेशे के वावजूद जनेऊ धरण करने की स्वतन्त्रता देता है व भगवान राम व कृष्ण की उपासना करने व उनके क्षत्रिय वंश के वंशज होने के दावे को माध्यम देता है। इस अतिस्ठान के फलस्वरूप उन्होने भगवान शिव से अवतरित होने के अपने पुराने दावे को छोडकर, भगवान राम का वंशज होने का वैकल्पिक दावा किया।[14] 1921 मे, कुशवाह क्रांति के समर्थक गंगा प्रसाद गुप्ता ने कोइरी, काछी, मुराव व कछवाहा जातियों के क्षत्रिय होने के साक्ष्यों पर एक पुस्तक प्रकाशित की।[7][15] उनके द्वारा इतिहास की पुनरसंरचना में तर्क दिया गया कि कुशवाह कुश के वंशज है व बारहवी शताब्दी में दिल्ली सल्तनत के मुस्लिम सुदृणीकरण के समय राजा जयचन्द को इन्होंने सैन्य सेवाए प्रदान की थी। बाद में विजयी मुस्लिमों के कारण कुशवाह समुदाय तितर बितर होकर अपनी पहचान भूल गया व जनेऊ आदि परंपराए त्याग कर निम्न स्तर के अलग अलग नामो के स्थानीय समुदायो में विभाजित हो गया।[7] गुप्ता व अन्य की विभिन्न जतियों के क्षत्रिय प्रमाण के इतिहास लिखने की इस आम कोशिश का जातीय संगठनो द्वारा प्रसार किया गया, जिसे दीपान्कर गुप्ता 'शहरी राजनैतिक शिष्ट' व 'अल्पशिक्षित ग्रामीणो' के मध्य संबंध स्थापना के रूप में देखते है। [16] कुछ जतियों ने इस क्षत्रित्व के दावे के समर्थन में मन्दिर निर्माण भी करवाए, जैसे कि मुराव लोगो के अयोध्या में मन्दिर।[2]

कुछ कुशवाह सुधारकों ने कुर्मी सुधारक देवी प्रसाद सिन्हा चौधरी के तर्ज पर यह तर्क दिया कि राजपूत, भूमिहार व ब्राह्मण भी खेतो में श्रम करते है, अतः श्रम कार्य में लग्न होने का शूद्र वर्ण से कोई संबंध नहीं जोड़ा जा सकता है।[17]

सन्दर्भ

  1. Pinch, William R. (1996). Peasants and monks in British India. University of California Press. पपृ॰ 12, 91–92. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-520-20061-6. मूल से 4 दिसंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2012-02-22.
  2. Pinch, William R. (1996). Peasants and monks in British India. University of California Press. पृ॰ 98. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-520-20061-6. मूल से 4 दिसंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2012-02-22.
  3. Agrawal, S. P.; Aggarwal, J. C. (1991). Educational and Social Uplift of Backward Classes: At what Cost and How. Concept Publishing. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788170223399. मूल से 7 मार्च 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2014-03-07.
  4. "Upper castes rule Cabinet, backwards MoS". The Times of India. मूल से 8 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 7 सितंबर 2015.
  5. "Three castes included in backward classes list". Hindustan Times. 5 November 2013. मूल से 15 अप्रैल 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 April 2014.
  6. Pinch, William R. (1996). Peasants and monks in British India. University of California Press. पृ॰ 81. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-520-20061-6. मूल से 4 दिसंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2012-02-22.
  7. Pinch, William R. (1996). Peasants and monks in British India. University of California Press. पृ॰ 92. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-520-20061-6. मूल से 4 दिसंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2012-02-22.
  8. Pinch, William R. (1996). Peasants and monks in British India. University of California Press. पृ॰ 88. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-520-20061-6. मूल से 4 दिसंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2012-02-22.
  9. Pinch, William R. (1996). Peasants and monks in British India. University of California Press. पपृ॰ 83–84. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-520-20061-6. मूल से 4 दिसंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2012-02-22.
  10. Pinch, William R. (1996). Peasants and monks in British India. University of California Press. पृ॰ 90. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-520-20061-6. मूल से 4 दिसंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2012-02-22.
  11. Jaffrelot, Christophe (2003). India's silent revolution: the rise of the lower castes in North India (Reprinted संस्करण). C. Hurst & Co. पृ॰ 199. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-85065-670-8. मूल से 27 मार्च 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2012-02-06.
  12. Charsley, S. (1998). "Sanskritization: The Career of an Anthropological Theory". Contributions to Indian Sociology. 32 (2): 527. आइ॰एस॰एस॰एन॰ 0973-0648. डीओआइ:10.1177/006996679803200216. (सब्सक्रिप्शन आवश्यक)
  13. Upadhyay, Vijay S.; Pandey, Gaya (1993). History of anthropological thought. Concept Publishing Company. पृ॰ 436. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7022-492-1. मूल से 4 दिसंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2012-02-06.
  14. Jassal, Smita Tewari (2001). Daughters of the earth: women and land in Uttar Pradesh. Technical Publications. पपृ॰ 51–53. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7304-375-8. मूल से 4 दिसंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2012-02-06.
  15. Narayan, Badri (2009). Fascinating Hindutva: saffron politics and Dalit mobilisation. SAGE. पृ॰ 25. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7829-906-8. मूल से 4 दिसंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2012-02-06.
  16. Gupta, Dipankar (2004). Caste in question: identity or hierarchy?. SAGE. पृ॰ 199. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-7619-3324-3. मूल से 4 दिसंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2012-02-22.
  17. Pinch, William R. (1996). Peasants and monks in British India. University of California Press. पृ॰ 110. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-520-20061-6. मूल से 4 दिसंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2012-02-22.