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१९वें कुशक बकुला रिनपोछे

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१९वें कुशक बकुला रिनपोछे (19th Kushok Bakula Rinpoche ; 21 मई, 1917 - 4 नवम्बर, 2003) कुशक बकुला रिनपोछे के अवतार माने जाते हैं। वे लद्दाख के सर्वाधिक प्रसिद्ध लामाओं में से एक थे। वे भारत के अन्तरराष्ट्रीय राजनयिक भी थे। उन्होने मंगोलिया एवं रूस में बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान के लिये उल्लेखनीय योगदान दिया तथा भारत में निवास कर रहे तिब्बती शरणार्थियों से उनका सम्बन्ध स्थापित किया।

१९८८ में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। २००५ में लेह विमानपत्तन का नाम उनके नाम पर बकुला रिनपोछे विमानपत्तन रखा गया।

जीवन परिचय

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१९वें कुशक बकुला रिनपोछे का जन्म १९ मई, १९१७ को लेह (लद्दाख) के पास माथो गांव के एक राजपरिवार में हुआ था। १९२२ में १३वें दलाई लामा ने उन्हें १९वाँ कुशक बकुला घोषित किया। तिब्बत की राजधानी ल्हासा के द्रेपुंग विश्वविद्यालय में उन्होंने १४ वर्ष तक बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया। १९४० में लद्दाख वापस आकर उन्होंने अपना जीवन देश, धर्म और समाज को समर्पित कर दिया। अब वे संन्यासी बनकर भ्रमण करने लगे।

१९४७-४८ में पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। श्री रिम्पोछे ने भारतीय सेना के साथ मिलकर इसे विफल किया और लद्दाख को बचा लिया। १९४९ में जवाहरलाल नेहरू के आग्रह पर उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया और लद्दाख के नवनिर्माण में लग गये।

जम्मू-कश्मीर में सत्ता पाते ही शेख अब्दुल्ला ने 'लैंड सीलिंग एक्ट' बना दिया। अब कोई व्यक्ति या संस्था १२० कनाल से अधिक भूमि नहीं रख सकती थी। इसका उद्देश्य विशाल बौद्ध मठों और मंदिरों की भूमि कब्जाना था। श्री रिम्पोछे ने सभी मठों के प्रमुखों के साथ ‘अखिल लद्दाख गोम्पा समिति’ बनायी। फिर वे शेख अब्दुल्ला, नेहरू जी और डा. अम्बेडकर से मिले। डा. अम्बेडकर के हस्तक्षेप से यह कानून वापस हुआ। १९५१ में जम्मू-कश्मीर संविधान सभा बनने पर वे निर्विरोध उसके सदस्य निर्वाचित हुए। उन्होंने विधानसभा में लद्दाख के भारत में एकीकरण का समर्थन तथा जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग होने का अधिकार देने का खुला विरोध किया।

श्री रिम्पोछे का मंगोलिया के सांस्कृतिक पुनर्जागरण में भी बड़ा योगदान है। मंगोलिया में मान्यता थी कि एक समय ऐसा आएगा, जब वहां बौद्ध विहारों, ग्रन्थों तथा भिक्षुओं को काफी खराब समय देखना होगा। फिर भारत से एक अर्हत आकर इसे ठीक करेंगे। और सचमुच यही हुआ। १९२४ में साम्यवादी शासन आते ही हजारों भिक्षु मार डाले गये। धर्मग्रंथ तथा विहार जला दिये गये। ऐसे में १९९० में श्री रिम्पोछे भारत के राजदूत बनाकर वहां भेजे गये।[1]

उनके वहां जाने के कुछ समय बाद शासन और लोकतंत्र समर्थकों में सशस्त्र संघर्ष छिड़ गया। श्री रिम्पोछे ने लोकतंत्र प्रेमियों को अहिंसा के संदेश के साथ ही हाथ पर बांधने के लिए एक अभिमंत्रित धागा दिया। लोकतंत्रप्रेमियों ने अपने बाकी साथियों के हाथ पर भी वह धागा बांध दिया। तभी शासन ने भी हिंसा छोड़कर शांति और लोकतंत्र बहाली की घोषणा कर दी। १० वर्ष के कार्यकाल में उन्होंने बंद मठ और विहारों को खुलवाया तथा बौद्ध अध्ययन के लिए एक महाविद्यालय स्थापित किया। उनके योगदान के लिए मंगोलिया शासन ने उन्हें अपना सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'पोलर स्टार' प्रदान किया।

श्री रिम्पोछे लद्दाख से दो बार विधायक तथा दो बार सांसद बनेे। १९७८ से ८९ तक वे अल्पसंख्यक आयोग के सदस्य रहे। १९८८ में शासन ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया। चार नवम्बर, २००३ को उनका निधन हो गया। १६ नवम्बर को राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार हुआ।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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सन्दर्भ

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  1. "आधुनिक लद्दाख के निर्माता कुशक बकुला रिम्पोछे". मूल से 22 मई 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 21 मई 2018.